विगत दिनों अन्तरताने Internet पर संयुक्त राष्ट्र संघ के एक वैश्विक सर्वेक्षण के निष्कर्ष को पढ़ रहा था। वह सर्वेक्षण बच्चों की पढ़ने-लिखने की आदतों को लेकर हुआ था। निष्कर्ष के शब्दों ने मुझे चौंका दिया। आप भी देखिए उस निष्कर्ष को -‘‘ आज विश्व के समक्ष आतंकवाद से भी बढ़ी एक चुनौती आ खड़ी हुई है। हमारी नई पीढ़ी अब केवल ‘लिसनर‘ और ‘व्यूअर‘ बनकर रह गई है। वह ‘रीडर‘ ही नहीं बची तो ‘राईटर‘ होने का तो प्रश्न ही नहीं आता। यदि हमारी पीढ़ी समय रहते नहीं चेती तो परिणाम बहुत भयावह होंगे।’
हम समझ सकते हैं इस संकट को विश्व यदि आतंकवाद से बढ़ा संकट मान रहा है तो निश्चय ही यह अत्यन्त संवेदनशील विषय भी है और सार्वभौम भी। इस विषय पर एक अभिभावक के रूप में हम विचार करें तो सर्वप्रथम हमें अध्ययन करना होगा इस रोग के कारण का। सबसे बड़ी विभीषिका तो यह है कि पुरूष क्या पढ़ेगा यह वह स्वयं तय करता है। मातृशक्ति क्या पढ़ेगी वे स्वयं तय करती हैं किन्तु बच्चा क्या पढ़ेगा यह वह स्वयं तय नहीं करता। हम बड़े उस पर अपनी पसंद को आरोपित करते हैं।
मुझे प्रवास का एक दृश्य याद आ रहा है। ट्रेन एक स्टेशन पर रूकी और पिताजी दौड़कर बुक स्टाल से ‘चंपक‘ और ‘लोटपोट‘ खरीद कर ले आए। उन्हें लगा था बेटा प्रसन्न हो जाएगा किन्तु वह मुंह चढ़ाकर बोला – “मैं क्या इतना छोटा हूँ कि ‘चंपक’ और ‘लोटपोट’ पढूंगा?” प्रश्न यह कि क्या हम बाल साहित्य बाल-गोपाल के आयु वर्ग के अनुसार खरीद कर देते हैं क्या? यह विकल्प पत्रिकाओं और बाल साहित्य की पुस्तकों दोनों पर लागु होता है।
दूसरी बात बाल पाठक को स्वयं अपना साहित्य क्रय करने का अधिकार दें। अर्थात् राशि उनके हाथों में दें। इन दिनों हम देखते हैं हर विज्ञापन में बच्चे दिखाई देने लगे हैं। कारण केवल इतना कि प्रत्येक उत्पादक चाहता है घर के बच्चे हमारा उत्पाद क्रय करने का आग्रह करें। जब हम बड़े उनसे फ्रिज, कुलर, मिक्सर पर उनकी राय का महत्व समझते हैं तो साहित्य पर क्यों नहीं?
स्वाध्याय वृत्ति कम होने के बड़े कारणों में हम टेलीविजन, कम्प्यूटर और मोबाईल को मानते हैं। क्या हम बच्चों से चर्चाकर स्नेहपूर्वक यह तय कर सकते हैं कि वे जितना समय इन साधनों पर गुजारते हैं उसका एक चौथाई समय आवश्यक रूप से पढ़ने में गुजारें? यह ध्यान रहे पढ़ने की परिभाषा में पाठ्यपुस्तकें नहीं बल्कि अन्य साहित्य ही आएगा। अपने घर में हम बच्चों को उनका स्वयं का वाचनालय तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करें।
कैसा हो हमारा घरेलु बाल वाचनालय?
इसमें बच्चों के लिए छोटी-छोटी पुस्तकें हों।
पुस्तकों की भाषा सरल हो।
पुस्तकों के विषय सरल हों।
सामाजिक या पारिवारिक समस्याएँ दर्शाने वाला साहित्य न रखें यदि हो तो समाधान कारक भी हो ।
केवल आध्यात्मिक पुस्तकों का बाहुल्य न हो अपितु उसमें विज्ञान, सिनेमा और कम्प्यूटर की दुनिया के रोचक साहित्य को भी प्रवेश दें।
पत्रिकाओं को माह के क्रम से जमाकर संग्रह करने और प्रसंग विशेष पर उसमें से सामग्री निकालने का अभ्यास बच्चों को करवाएं।
पुस्तकों पर क्रमांक डालकर एक रजिस्टर में उनका अंकन करने को कहें।
किसी को पढ़ने के लिए पुस्तक बगैर अंकित किए न देने का अभ्यास बनाएं।
मेरे एक मित्र ने बहुत गंभीर होकर मुझसे शिकायत की, उनकी बेटी पुस्तकें बिलकुल नहीं पढ़ती । मैने पूछा – “आप पढ़ते हैं क्या?” वे अचकचा कर बोले, “सी.ए. हूँ, दिनभर तो किताबों में ही डूबा रहता हूँ। और कितनी पढूं?” मैने कहा – “बेटी भी वैसे तो दिनभर किताबों में डूबी रहती है, पर आप कोर्स की पढाई को पढ़ना कहाँ मानते हैं? ठीक वैसे ही आप अन्य साहित्य को पढ़ने का थोड़ा-सा समय निकालिए बच्चे भी पढ़ने लगेंगे।”
कुल मिलाकर हम स्वाध्याय करें। बच्चों को उनकी रूचि की सामग्री फ्लेग लगाकर पढ़ने के लिए दें। बाद में उस पर चर्चा करें। बच्चे स्वतः रूचि लेने लगेंगे।
बढ़ती उम्र के साथ बच्चों को क्रमश: उनकी रूचि विकसित और परिष्कृत करने वाली पुस्तकें देना प्रारंभ कर दें। विज्ञान, इतिहास, रहस्य रोमांच, कथाएँ आदि बढ़ती उम्र के बच्चे पसन्द करते हैं।
प्रयास करें बच्चे अपनी उम्र से अधिक का साहित्य अन्य माध्यमों से समय पूर्व प्राप्त न करें। बड़ों की पत्रिकाएं घर में लाते समय यह सतर्कता और बढ़ा दें। प्रतिदिन रात्रि भोजन के पश्चात् पूरे परिवार के साथ बैठकर बच्चों द्वारा पढ़े गए साहित्य पर रूचिपूर्वक चर्चा करें। यह बात सदैव स्मरण रहे ‘बाल साहित्य‘ ‘बचकाना साहित्य‘ नहीं होता।
सकारात्मक चिन्तन देने वाला साहित्य और पारिवारिक जीवन मूल्यों तथ रिश्तों की संवेदनशीलता प्रदर्शित करने वाले साहित्य को उसी रूचि से बच्चों तक पहुंचाएं जिस रूचि से माँ बच्चों की थाली तक सुस्वादु भोजन पहुंचाती है।
आजकल बच्चों के अखबार भी अल्प मात्रा में प्रकाशित होने लगे हैं। पता करके एकाध बुलवाना प्रारंभ करें भले ही मासिक या पाक्षिक हो। यह चिंता अवश्य करें कि बाल समाचार पत्र या पत्रिकाएं बच्चों के नाम पर ही डाक से आएं हमारे नाम से नहीं। ये कुछ छोटी -छोटी बातें हैं जो स्वानुभूत नुस्खे भी हैं जिनका पालन करें तो परिवार के बच्चे भी हमारी तरह स्वाध्यायी बनने लगेंगे।